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नू नो॑ रास्व स॒हस्र॑वत्तो॒कव॑त्पुष्टि॒मद्वसु॑। द्यु॒मद॑ग्ने सु॒वीर्यं॒ वर्षि॑ष्ठ॒मनु॑पक्षितम्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

nū no rāsva sahasravat tokavat puṣṭimad vasu | dyumad agne suvīryaṁ varṣiṣṭham anupakṣitam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नु। नः॒। रा॒स्व॒। स॒हस्र॑ऽवत्। तो॒कऽव॑त्। पु॒ष्टि॒ऽमत्। वसु॑। द्यु॒मत्। अ॒ग्ने॒। सु॒ऽवीर्य॑म्। वर्षि॑ष्ठम्। अनु॑पऽक्षितम्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:13» मन्त्र:7 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:13» मन्त्र:7 | मण्डल:3» अनुवाक:2» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) जगदीश्वर वा विद्वान् पुरुष ! आप (नः) हम लोगों के लिये (सहस्रवत्) असंख्यपरिमाणयुक्त (तोकवत्) प्रशंसा करने योग्य सन्तानों से पूरित (पुष्टिमत्) अनेक प्रकार की पुष्टि के दाता (सुवीर्य्यम्) प्रचण्ड बल को बढ़ानेवाले (द्युमत्) ज्ञान के प्रकाश से युक्त (वर्षिष्ठम्) अतिशय वृद्धि से युक्त और (अनुपक्षितम्) ख़र्च करने से नहीं न्यून होनेवाले (वसु) विद्या सुवर्ण आदि धन को (नु) शीघ्र (रास्व) दीजिये ॥७॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि परम ऐश्वर्य्ययुक्त ईश्वर वा किसी विद्वान् पुरुष से प्रार्थना करके प्राप्ति के योग्य विद्या ऐश्वर्य्य उत्तम सन्तान श्रेष्ठ बल पुरुषार्थ से बढ़ावें, जिससे सब जनों की शीघ्र वृद्धि कर सकें ॥७॥ इस सूक्त में विद्वान् और अग्नि के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति है, यह जानना चाहिये ॥ यह तेरहवाँ सूक्त और तेरहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे अग्ने जगदीश्वर विद्वन् वा ! त्वं नः सहस्रवत्तोकवत्पुष्टिमत्सुवीर्य्यं द्युमद्वर्षिष्ठमनुपक्षितं च वसु नु रास्व ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (नु) सद्यः (नः) अस्मभ्यम् (रास्व) देहि (सहस्रवत्) सहस्रमसङ्ख्यपरिमाणं विद्यते यस्मिँस्तत् (तोकवत्) प्रशंसितानि तोकान्यपत्यानि भवन्ति यस्मिँस्तत् (पुष्टिमत्) बहुविधा पुष्टिर्विद्यते यस्मिँस्तत् (वसु) विद्यासुवर्णादिधनम् (द्युमत्) द्यौर्ज्ञानप्रकाशो विद्यते यस्मिँस्तत् (अग्ने) परमेश्वर विद्वन् वा (सुवीर्य्यम्) शोभनं वीर्य्यं बलं यस्मात्तत् (वर्षिष्ठम्) अतिशयेन वृद्धम् (अनुपक्षितम्) यद्व्ययेनापि नोपक्षीयते तत् ॥७॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः परमेश्वरादैश्वर्य्यवतो विदुषो मनुष्याद्वा विद्यैश्वर्य्यं श्रेष्ठान्यपत्यान्युत्तमं बलं पुरुषार्थेन वर्द्धनीयं येन सर्वेषां सद्यो वृद्धिः कर्त्तुं शक्येतेति ॥७॥ अत्र विद्वदग्निगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति त्रयोदशं सूक्तं त्रयोदशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी परम ऐश्वर्ययुक्त ईश्वर वा एखाद्या विद्वान पुरुषाची प्रार्थना करून पुरुषार्थाने योग्य विद्या, ऐश्वर्य, उत्तम संतान, श्रेष्ठ बल वाढवावे, ज्यामुळे त्यांना सर्व लोकांची शीघ्र वृद्धी करणे शक्य होईल. ॥ ७ ॥